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गीता प्रेस, गोरखपुर >> आशा की नयी किरणें

आशा की नयी किरणें

रामचरण महेन्द्र

प्रकाशक : गीताप्रेस गोरखपुर प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :214
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 1019
आईएसबीएन :81-293-0208-x

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प्रस्तुत है आशा की नयी किरणें...

सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये


जो शक्ति पृथ्वीको धारण किये हुए है वह क्रियाशीलता है। यदि पृथ्वी अपनी धुरीपर न घूमे तो वह गिर पड़ेगी। इसी प्रकार यदि हम अपनी क्रियाशीलता, परिश्रमशीलता त्याग दें, तो जीवन-संग्राममें अवरोध उत्पन्न हो जायगा। क्रियाशीलता ही हमारे जीवनका सब कुछ है।

रुपयेके परिवर्तनमें हम सब कुछ पा जाते हैं। पर रुपया वास्तवमें क्या है? यह है, हमारा संचित श्रम। श्रमको स्थूलरूप प्रदान कर रुपया, जमीन, जायदाद बना लेते हैं। इसी संचित श्रमसे हम दूसरोंका विभिन्न प्रकारका श्रम खरीदा करते हैं। यदि यह श्रमके विनिमयकी प्रथा रुक जाय, तो संसारका समस्त कार्य रुक सकता है। लेकिन प्रत्येक व्यक्ति अपने शरीर, मन, बुद्धिके अनुसार समाजका कुछ-न-कुछ कार्य करता है। किसीका श्रम शारीरिक है तो किसीका मानसिक रहता है। इसी श्रमके आदान-प्रदानसे समाजका कल्याण होता है।

क्रियाशीलता प्रकृतिमें है। हवा और जलतक बिना क्रिया सड़ने-गलने लगेंगे। चाकूको जितना पड़ा रखेंगे, निष्किय रखेंगे, जंगसे नष्ट हो जायगा। उसीको यदि प्रयोगमें लायेंगे, तो तेज चमकदार और सुन्दर बन जायगा। ऐसा ही मानव-जीवन है। यदि हम अपनी शक्तियोंका सदुपयोग करते रहेंगे, तो मनके दुर्विकार, कूड़ा-करकट, मैल, दुर्गन्ध, सड़न, अव्यवस्था, आलस्य और दारिद्रय नष्ट हो जायँगे। क्रियाशील रहनेसे हमारी चैतन्यता, जागरूकता, शुचिता और सात्त्विकताकी वृद्धि होती है। मनुष्य अंदर और बाहरसे स्वच्छ एवं प्रसन्न रहता है।

समयरूपी तालेमें परिश्रमरूपी ताली डालनेसे इस पृथ्वीके सब सुख-सम्पत्ति प्राप्त होते हैं। परिश्रमशील व्यक्ति सब कुछ कर सकता है-एक चौपाईका टुकड़ा देखिये-

सकल पदारथ हैं जग माहीं।
कर्महीन नर पावत नाहीं।।

इसमें लेखकने ज्ञान और अनुभवका अखण्ड भण्डार भर दिया है। भगवान्ने मनुष्यको संसारमें भेजते समय यह क्रम रखा है कि कर्मनिष्ठा और परिश्रमशीलतासे ही सब सम्पदाएँ प्राप्त हों। विश्व कर्मप्रधान है। जो जैसा कर्म करता है, वैसा ही फल चखता है। तरह-तरहके फल लोगोंको मिल रहे हैं, किसीकी आरती उतर रही है, जयध्वनि बोली जा रही है यानी प्रतिष्ठा दी जा रही है, प्रशंसा की जा रही है। ये वे व्यक्ति है जिन्होंने श्रमद्वारा संसारके समयका उपयोग किया है। श्रमकी पूँजीसे जो चाहे खरीद लीजिये।

लोग अभावग्रस्त क्यों है? इसीलिये कि उन्होंने पूरी परिश्रमशीलतासे काम नहीं किया है। पूरी निष्ठा नहीं लगायी है। भगवान् उसीका फल देंगे, जो आपने किया है। उन्होंने श्रमके ऊपर सब व्यवस्था रखी है। वे परम न्यायकारी है। वे देखते है कि कौन सही-सही परिश्रम कर रहा है। सही परिश्रमकी कसौटीपर ही हमें सांसारिक मानप्रतिष्ठा, प्रसिद्धि प्राप्त होती है।

समय और श्रमकी उपयोगिता ही मुख्य है। जो कामसे जी चुराते है, वे मरते है, गरीब रहते है और पग-पगपर अपमानित होते हैं। जो फालतू आलसी निकम्मे शैतान हैं, वे लड़ेगे, झगड़ेंगे, जुआ खेलेंगे, परेशान करेंगे। ये शैतान आपके दिमागपर अधिकार न कर लें, इसके लिये सावधान रहें। मनके शैतानको काम दीजिये। शारीरिक श्रमकी भी उपेक्षा मत कीजिये। श्रम और सम्पत्तिमें कोई अन्तर नहीं है। किसान पृथ्वीकी छाती चीरकर भोजन उत्पन्न करता है, मल्लाह नदीकी छाती चीरकर चलता है। जय, प्रशंसा, मान-प्रतिष्ठा, रुपया-पैसा, जायदाद-यें सब श्रमके पुरस्कार ही हैं।

महाभारतमें एक स्थानपर कहा गया है कि दोनों भुजाओंका कमाया हुआ अन्न हमारे पेटको मिलना चाहिये, बुद्धिकी कमाई हमारे मनको मिलनी चाहिये। बुद्धिसे लोग अधिक कमाकर प्रायः फालतू अपव्यय करते हैं। शारीरिक श्रमसे कम पैसा मिलता है, लेकिन उसके बिगड़नेकी भी कम गुंजाइश है। बुद्धिकी कमाई धर्म, यज्ञ, दान, पुस्तक-क्रय, ज्ञानवर्द्धनमें व्यय होनी चाहिये। हमारी परम्परा ऐसी रही कि राजा जनकतक हल जोतकर जीविकोपार्जन करते रहे। खेतीका रुपया पसीनेका रुपया है। श्रमका रुपया है। नसीरुद्दीन कुरान लिखकर अपनी जीविका उपार्जन करता था। उसकी पत्नी उसके लिये भोजनकी व्यवस्था करती थी। वह टोपी बनाया करता था। बाजारमें किसीके यहाँ रखवा कर साधारण मूल्यपर ही उन्हें बिकवाता था। गांधी और विनोबा श्रमकी प्रतिष्ठाके ज्वलन्त उदाहरण हैं। उनके यहाँ जलतक मनुष्य खींचते रहे! स्वयं अपना काम करते रहे। व्यक्तिगत आवश्यकताओंकी पूर्तिके लिये स्वयं ही परिश्रम करनेकी जरूरत है।

श्रम मनुष्यकी अभूतपूर्व वस्तु है। श्रमदान-यश मनुष्यके श्रमकी प्रतिष्ठाका एक जीता-जागता रूप है। कर्म ही मनुष्यको ऊपर उठानेवाला है। भगवान् स्वयं कर्मरत हैं। वे एक क्षणके लिये भी बिना कर्म किये नहीं रहते। यदि वे एक क्षणके लिये कर्म करना बंद कर दें, तो इस सृष्टिका प्रत्येक कार्य रुक जाय। वे निरन्तर कार्यरत हैं। हम भी उनसे शिक्षा लें और अपने-अपने ढंगसे परिश्रम करते रहें। बच्चे, युवक, वृद्ध, नारियाँ सब आयुपर्यन्त कुछ-न-कुछ श्रम कर सकते हैं।

परिश्रम करनेकी मूल वृत्ति किसी-न-किसी विशेष उद्देश्यके लिये प्रयत्न करना है। एक उद्देश्यको रखकर हमें उसकी प्राप्तिके लिये परिश्रम करना उचित है। एक दिशामें प्रयत्न फल शीघ्र देता है। कई बार सामान्य परिश्रम या संयोगसे कोई-कोई बड़ी बात हो जाती है। एकाएक कुछ व्यक्ति अमीर बन जाते हैं या प्रयत्न विफल हो जाते हैं लेकिन यह स्थिति असाधारण है। बिना श्रमके आयी हुई सम्पत्ति स्वयं निकल जाती है, स्थायी लाभ नहीं होता। फालतू पैसा अभिमानका नशा उत्पन्न करता है। कर्मको कर्त्तव्य समझकर निरन्तर श्रम कीजिये और खिन्नतासे निराश मत रहिये। प्रत्येक क्षण कर्म करते रहनेसे गुप्त शक्तियोंका विकास होता है और जीवन दीर्घ बनता है। जीवनमें जो समयकी पूँजी पड़ी है, उसे निचोड़कर तरह-तरहकी सम्पदाएँ प्राप्त कीजिये।

श्रुति कहती है-जीवन एक संग्राम है। उस जीवनमें वही विजयी होता है, जो सीना तानकर आफतोंका मुकाबिला कर सकता है। आफतोंकी घनघोर घटाओंमें बिजलीकी तरह मुस्करा सकता है, परिस्थितियोंका दास न बनकर उनका दृढ़निश्चयी स्वामी बनता है। जो हट जाना पसंद करता है, पर झुकना नहीं।

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    अनुक्रम

  1. अपने-आपको हीन समझना एक भयंकर भूल
  2. दुर्बलता एक पाप है
  3. आप और आपका संसार
  4. अपने वास्तविक स्वरूपको समझिये
  5. तुम अकेले हो, पर शक्तिहीन नहीं!
  6. कथनी और करनी?
  7. शक्तिका हास क्यों होता है?
  8. उन्नतिमें बाधक कौन?
  9. अभावोंकी अद्भुत प्रतिक्रिया
  10. इसका क्या कारण है?
  11. अभावोंको चुनौती दीजिये
  12. आपके अभाव और अधूरापन
  13. आपकी संचित शक्तियां
  14. शक्तियोंका दुरुपयोग मत कीजिये
  15. महानताके बीज
  16. पुरुषार्थ कीजिये !
  17. आलस्य न करना ही अमृत पद है
  18. विषम परिस्थितियोंमें भी आगे बढ़िये
  19. प्रतिकूलतासे घबराइये नहीं !
  20. दूसरों का सहारा एक मृगतृष्णा
  21. क्या आत्मबलकी वृद्धि सम्मव है?
  22. मनकी दुर्बलता-कारण और निवारण
  23. गुप्त शक्तियोंको विकसित करनेके साधन
  24. हमें क्या इष्ट है ?
  25. बुद्धिका यथार्थ स्वरूप
  26. चित्तकी शाखा-प्रशाखाएँ
  27. पतञ्जलिके अनुसार चित्तवृत्तियाँ
  28. स्वाध्यायमें सहायक हमारी ग्राहक-शक्ति
  29. आपकी अद्भुत स्मरणशक्ति
  30. लक्ष्मीजी आती हैं
  31. लक्ष्मीजी कहां रहती हैं
  32. इन्द्रकृतं श्रीमहालक्ष्मष्टकं स्तोत्रम्
  33. लक्ष्मीजी कहां नहीं रहतीं
  34. लक्ष्मी के दुरुपयोग में दोष
  35. समृद्धि के पथपर
  36. आर्थिक सफलता के मानसिक संकेत
  37. 'किंतु' और 'परंतु'
  38. हिचकिचाहट
  39. निर्णय-शक्तिकी वृद्धिके उपाय
  40. आपके वशकी बात
  41. जीवन-पराग
  42. मध्य मार्ग ही श्रेष्ठतम
  43. सौन्दर्यकी शक्ति प्राप्त करें
  44. जीवनमें सौन्दर्यको प्रविष्ट कीजिये
  45. सफाई, सुव्यवस्था और सौन्दर्य
  46. आत्मग्लानि और उसे दूर करनेके उपाय
  47. जीवनकी कला
  48. जीवनमें रस लें
  49. बन्धनोंसे मुक्त समझें
  50. आवश्यक-अनावश्यकका भेद करना सीखें
  51. समृद्धि अथवा निर्धनताका मूल केन्द्र-हमारी आदतें!
  52. स्वभाव कैसे बदले?
  53. शक्तियोंको खोलनेका मार्ग
  54. बहम, शंका, संदेह
  55. संशय करनेवालेको सुख प्राप्त नहीं हो सकता
  56. मानव-जीवन कर्मक्षेत्र ही है
  57. सक्रिय जीवन व्यतीत कीजिये
  58. अक्षय यौवनका आनन्द लीजिये
  59. चलते रहो !
  60. व्यस्त रहा कीजिये
  61. छोटी-छोटी बातोंके लिये चिन्तित न रहें
  62. कल्पित भय व्यर्थ हैं
  63. अनिवारणीयसे संतुष्ट रहनेका प्रयत्न कीजिये
  64. मानसिक संतुलन धारण कीजिये
  65. दुर्भावना तथा सद्धावना
  66. मानसिक द्वन्द्वोंसे मुक्त रहिये
  67. प्रतिस्पर्धाकी भावनासे हानि
  68. जीवन की भूलें
  69. अपने-आपका स्वामी बनकर रहिये !
  70. ईश्वरीय शक्तिकी जड़ आपके अंदर है
  71. शक्तियोंका निरन्तर उपयोग कीजिये
  72. ग्रहण-शक्ति बढ़ाते चलिये
  73. शक्ति, सामर्थ्य और सफलता
  74. अमूल्य वचन

विनामूल्य पूर्वावलोकन

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